पत्रकारिता अब सामाजिक सरोकार से दूर हो चली है,ये वो पत्रकारिता नही रह गई है जो कि समाज को अच्छे बुरे का फर्क समझााने के लिए एक आईना का काम करती थी के परिवेष में आईने में दिखने वाली आकृति धूमिल जरूर दिखने लगी है। हो भी क्यों न अब तो इसका पूर्ण व्यवसायीकरण हो चला है। जब मैं मास काॅम कर रहा था । तो पत्रकारिता के इतिहास के बारे में पढने को मिला तो लगा कि पत्रकार द्वारा पत्रों को आकार देने का काम नही करते बल्कि एक बडे समाज सुधारक की भूमिका में अपने दायित्व निर्वहन करते हैं। ये सब पढते पढते मैं उन अतीत के लेखनी के शूरबीरों के प्रति नतमस्तक होने के लिए मन व्याकुल हो चलता था। बताया गया कि पत्रकारिता अनेक प्रकार की होती है। उसमें से पीत पत्रकारिता के लिए बचने की सलाह दी जाती है । लेकिन जब हम बडे ही मनोयोग से समाज सेवा व समाज में एक नई भूमिका के निभाने को आतुर हुआ।शुरूआती दिन अच्छे चले लेकिन कुछ दिनों में ही ये आतुरता व पत्रकारिता का वेग थमने लगा और सपनों का ख्याली पुलाव धीरे धीरे कपूर की मानिंद उडने लगा। कलम चलने की शुरूआत से चला सफर धीरे धीरे पत्रकारिता में आये बदलाव के थपेडों का झेलता रहा जोकि बद्दूस्तर जारी है। अब वास्तविकता ये है कि पत्रकारिता का पूर्ण बाजारीकरण हो गया है। इसके लिए पीत पत्रकारिता का सहारा लेने में गुरेज नही किया जा रहा है। आज के समाज धारणा बदल गई है। कभी पत्रकार को देख उनकी आंखों में श्रद्धा व सम्मान झलकने लगता है। लेकिन अब ऐसा नजारा शायद ही देखने को मिले। हां मै ये भी कहना चाहता हूं कि आज भी ऐसे पत्रकार इस जगत में है कि उनका नाम आते ही लोगों में आदर भाव पैदा कर देते हैं। एक बात और कहना चाहता हूं कि आप पाप से घृणा करो पापी से नही । इसका जिम्मेदार क्षेत्र का वो पत्रकार भी उतना नही है जितना मालिकान हैं। जरा नजर डाले क्षेत्रीय स्तर यानी जिलों पर होने वाली पत्रकारिता पर कि मैं ये देख रहा हूं कि पत्रकारिता की एबीसीडी तक नही आती,शब्दों का ज्ञान नही है फिर भी जिलों में ब्यूरो प्रमुख बने बैठे हैं। कारण सिर्फ ये है कि बिजनेस देते हैं चैनलों को अखबारों को। एक बार मै देश के जाने माने अखबार के आफिस गया तो मै पूरी तैयारी से गया कि बडा बैनर है संपादक जी क्या पूंछ बैठे तो। जैसे ही अन्दर गया। संपादक जी ने पूछा कि क्या करते हो,और क्या बिजनेस दोगे।मैं तो आवाक रह गया। ये कह कर आपके अनुरूप ही देगे। आज प्रिंट हो या चैनल सभी पर उद्योगपतियों का कब्जा हो चला है जोकि इसी की आड में अपना ऊल्लू सीधा कर रहे हैं और बदनाम हो रहे है पत्रकार, इनका भी शेषड कम नही हो रहा है । दिन रात दौडते है और उन्हे मिलता है चन्द रूपये, जोकि मानदेय के रूप में मिलता है। सरकारें भी इनके लिए कुछ नही कर रही हैं। ये सब कारण भी पत्रकारिता के स्तर को गिराने की जिम्मेदार है। अर्थ से जोडकर कोई काम किया जाता है तो उसमें पारदर्शिता की उम्मीद नही करनी चाहिए।लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ होने के चलते लोकतांत्रिक देष में इनकी भूमिका अहम हो जाती है। अगर ये अपनी जिम्मेदारी से मुकरती है,तो सही दिशा देने काम कोन करेगा एक अहम सवाल बन कर खडा होता है। अतः आज जरूरत है कि अखबारों एवं चैनलों के मालिकान ये समझे की हमारी समाज में कितनी अहमियत है। और व्यवसायीकरण को पूरी तरह से पत्रकारिता क्षेत्र में हावी न होने दें। ये सच भी है कि चैनल व अखबार चलाने में करोडों का वारा न्यारा होता है। उसके लिए एक बडी पूंजी की आवश्यकता है।इसलिए व्यवसायीकरण भी जरूरी है, लेकिन इसके साथ इस बात का अवश्य ध्यान देने की जरूरत है कि पत्रकारिता के स्तर का बनाये रखा जाय। जिसकी समाज व देश दोनों को ऐसी स्तरीय पत्रकारिता की आवश्यकता है।
हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। आजादी के बाद देश में एक विस्तृत संविधान लागू हुआ। जिसमें लिखा गया कि देश का हर नागरिक अमीर- गरीब,जाति-धर्म,रंग-भेद,नस्लभेद क्षेत्र-भाषा भले ही अलग हो लेकिन मौलिक अधिकार एक हैं।कोई भी देश का कोई भी एक कानून उपरोक्त आधार बांटा नही जाता है । सभी के लिए कानून एक है। अगर हम गौर करें शायद ये हो नही रहा है। एक कानून होते हुए व्यवस्थाएं दो हो गई है। आम आदमी के लिए कानून व्यवस्था संविधान के अनुसार होती हैं। लेकिन विशिष्ट लोगों के लिए व्यवस्था बदल जाती है।विशेष रूप से राजनेताओं के लिए कानून व्यवस्था का मायने ही बदल जाता है। उदाहरण के तौर पर आमजन कानून हाथ में लेता है तो पुलिस उसे सफाई देने तक का मौका नही देती है और जेल में ठूंस देती है। वहीं राजनेता कानून अपने हाथ लेता है ,तो वही पुलिस जांच का विषय बता कर गिरफ्तारी को लेकर टालमटोल करती है। क्या एक कानून दो व्यवस्था नही है ! लालू का परिवार भ्रष्टाचार में फंस गया है, इसे लेकर सीबीआई की कार्यवाही को लालू प्रसाद यादव राजनीति से प्रेरित और केंद्र सरकार पर बदले की भावना से कार्यवाही का आरोप लगा रह
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