नीरज सिंह--
भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इजरायल के तीन दिवसीय यात्रा पर चार जुलाई को तेल अबीब पहुंचे, एअरपोर्ट पर उनका भव्य स्वागत हुआ। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू प्रोटोकॉल तोड़ते हुए स्वयं वहाँ पहुँच कर गर्मजोशी के साथ श्री मोदी का स्वागत किया, ऐसा दूसरी बार हुआ। इससे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति के लिये प्रोटोकॉल तोडा था ।इसी से अंदाजा लग गया कि इजरायल की नजर में भारत देश व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कितना महत्व है। 70 वर्ष के बाद किसी प्रधानमंत्री की इजरायल यात्रा है। इससे ये साफ हो गया कि भारत की मोदी सरकार ने बता दिया है कि इजराइल से पारम्परिक रिश्ते से अलग चलने का समय आ गया है।भारत-इजराइल के सम्बंधो में मोदी की यात्रा ने नई इबारत लिखने का कार्य किया है। राष्ट्रपति रिवेन रिवलीन ने भी प्रधानमंत्री मोदी के साथ काफी खुशनुमा माहौल में वार्ता किया। दोनों देशों के बीच सात अहम समझौतों पर हस्ताक्षर हुए जिसमें कृषि, जल, गंगा सफाई, आप्टिकल,परमाणु, रक्षा, व प्रौद्योगिकी क्षेत्र प्रमुख हैं।इस समझौतों से भारत को इजराइल से आधुनिक तकनीक के साथ आतंकवाद से निपटने के लिए विश्व से सबसे तेज खुफिया एजेंसी से भी सहायता मिलेगी।
दोनों देश के पारम्परिक सांस्कृतिक हिन्दू -यहूदी सभ्यता के अनेक क्षेत्रों में समानता दिखने को मिली है। भारत की तरह इजराइल भी अनेक कठिनाईयों के दौर से गुजर चुका है। भारत से उसके ही भूभाग इस्लामिक देश पाकिस्तान बना तो वहीं इजराइल से इस्लामिक देश फलस्तिीन का निर्माण हुआ।दोनों अपने ही भूभाग के देशों से इस्लामिक आतंकवाद से जूझ रहे हैं।
भारत में लोकतांत्रिक देश के साथ हिन्दू बहुल राष्ट्र है, तो इजराइल यहूदी बहुल एकलौता राष्ट्र है। इन समानताओं और परिस्थितियों के कारण ही ये दोनों देश एक साथ मिलकर ही इन समस्याओं से लड सकते हैं। अगर इतिहास पर गौर किया जाय तो इजराइल ने हमेशा ही भारत के प्रति अपना रवैया सकारात्मक ही रखा है। जबकि भारत ऐसा नही कर सका है।
संयुक्त राष्ट्रसंघ में 1949 में संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत ने अरब के देश नाराज न हो जायें, इजराइल को राष्ट्र न मानने के प्रस्ताव के पक्ष मंे वोट दिया था, फिर भी इजराइल ने भारत से अपना विरोध नही जताया। फिलहाल 1950 में अपनी भूल सुधारते हुए इजराइल को राष्ट्र की मान्यता दे दी। जबकि इजराईल ने 1962,1971 हो या फिर कारगिल हो सभी युद्धों में भारत की सैन्य हथियारों से मदद किया। तब भी भारत के प्रधानमंत्री को इजराइल जाने में 70 वर्ष लग गये।
इस तरफ 1992 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने अवश्य ही इजराइल के रिश्ते की ओर ध्यान दिया था, जोकि उनकी विदेश नीति की दूरदर्शिता रही। लेकिन फिर एक बार मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के चलते भारत के प्रधानमंत्री को 25 वर्ष इजराइल पहुंचने में लग गये। जब उस दौरान फिलिस्तिीनी नेता यासर आराफात ने भी नरसिम्हाराव के दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए कहा था कि दोनों देशों के बीच सम्बंध होने चाहिए।
लेकिन भारत की वोट राजनीति हावी रही कि कहीं मुस्लिम वोट बैंक न खिसक जाये साथ अरब देश नाराज न हो जाय। वहीं मोदी यात्रा से अरब देशों सहित कोई राष्ट्र विरोध व बयानबाजी नही कर रहा है,सिर्फ पाकिस्तान को छोडकर वो भी उसकी घबराहट है दोनों देशों के एक जुटता को देखकर कि कहीं उसकी आतंकी दुकान बंद न हो जाय।
इसके अलावा जो पार्टी 50 वर्ष राज्य किया वो अब मोदी सरकार को सिखा रही है कि इजराइल गये तो फिलिस्तिीन क्यों नही गये। जो भी हो प्रधानमंत्री की ये यात्रा ऐतिहासिक रही है। और इसमें कोई दो राय नहीं कि इससे भारत को आने वाले समय में तकनीकी स्तर पर बडे फायदे मिलते दिख रहे हैं।
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