राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए दलित समाज की मीरा कुमार को यूपीए का उम्मीदवार बनाया ,जबकि इसी समाज के राम नाथ कोविन्द को एनडीए पहले उम्मीदवार बना चुका है। यानी ये राष्ट्रपति चुनाव दलित बनाम दलित बन चुका है। राष्ट्रवाद व धर्मनिरपेक्ष की दुहाई देने वाले ये राजनीतिक दलों ने तो हद ही कर दी । इन्हें शर्म नही आती है की राष्ट्रपति जैसे संबैधानिक पद को भी आरक्षण की आग में झोंकने का काम किया जा रहा है। एक दल को दोषी ठहराना गलत होगा, क्योंकि इसके सभी राजनीतिक पार्टियां पूर्ण दोषी हैं। लोकतांत्रिक देश के लिए इससे बड़ा दुःख की बात और क्या हो सकती है। प्रणव मुखर्जी जैसे विद्वान राष्ट्रपति को दुबारा मौका देना क्या गलत होता! अगर सभी राजनीतिक दलों को खंगाला जाया तो शायद इनके मुखौटे एक जैसे ही मिलेंगे कोई 19 होगा तो कोई 20 होगा। हम्माम सभी नंगे दिखेंगे।हद हो गई है देश की दिशा को हमारे राजनीतिक दल कहाँ ले जा रहे हैं। हम दलित के राष्ट्रपति बनने के विरोध में कतई नहीं बल्कि स्वागत करते हैं। लेकिन राष्ट्रपति जैसे पदों के लिये घटिया राजनीति करने का विरोधी हूँ , इसके लिए आम सहमति होना काफी मायने रखता है,पर वोट की राजनीति में अक्सर ही संवैधानिक पद भी वोटकरण व जातिकरण शिकार हो रहा है। अब तो व्यक्ति की अभिव्यक्ति के आड़ में जहर उगल जा रहा है तो राजनीतिक दल भी उनसे पीछे नही हैं , धर्मनिरपेक्ष की दुहाई देते हैं तो दूसरी ओर जाति, धर्म व क्षेत्रवाद की राजनीति करने से नही चूकते जोकि लोकतांत्रिक देश के लिए धीमा जहर साबित हो रहा है। कहीं यही हालात आगे रहे तो विदेशी खतरा पीछे रह जायेगा और जातीय संघर्ष भीषण रूप ले लेगा। सत्ता में व विपक्ष में बैठे देश के कर्णधारों सबका साथ सबका विकास,धर्मनिरपेक्षता जैसे थोथले नारों जनता ऊब चुकी है। रोजगार, विकास व मूलभूत सुविधाएं जनता को मुहैया कराने की जरुरत है। घटिया राजनीतिक सोच बंद कर जनता के बारे सोचने की आवश्यकता है, वरना देश की हालत बाद से बदतर होती जायेगी एयर देश की एकता व अस्मिता खतरे में पड़ जायेगी ,और हम कुछ नही कर पाएंगे।
हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। आजादी के बाद देश में एक विस्तृत संविधान लागू हुआ। जिसमें लिखा गया कि देश का हर नागरिक अमीर- गरीब,जाति-धर्म,रंग-भेद,नस्लभेद क्षेत्र-भाषा भले ही अलग हो लेकिन मौलिक अधिकार एक हैं।कोई भी देश का कोई भी एक कानून उपरोक्त आधार बांटा नही जाता है । सभी के लिए कानून एक है। अगर हम गौर करें शायद ये हो नही रहा है। एक कानून होते हुए व्यवस्थाएं दो हो गई है। आम आदमी के लिए कानून व्यवस्था संविधान के अनुसार होती हैं। लेकिन विशिष्ट लोगों के लिए व्यवस्था बदल जाती है।विशेष रूप से राजनेताओं के लिए कानून व्यवस्था का मायने ही बदल जाता है। उदाहरण के तौर पर आमजन कानून हाथ में लेता है तो पुलिस उसे सफाई देने तक का मौका नही देती है और जेल में ठूंस देती है। वहीं राजनेता कानून अपने हाथ लेता है ,तो वही पुलिस जांच का विषय बता कर गिरफ्तारी को लेकर टालमटोल करती है। क्या एक कानून दो व्यवस्था नही है ! लालू का परिवार भ्रष्टाचार में फंस गया है, इसे लेकर सीबीआई की कार्यवाही को लालू प्रसाद यादव राजनीति से प्रेरित और केंद्र सरकार पर बदले की भावना से कार्यवाही का आरोप लगा रह
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