तलाक-तलाक .....ये तीन शब्द मुस्लिम महिलाओं के जीवन का सबसे भयावह शब्द और नारकीय जीवन की शुरूआत होती थी। जिसे याद करते ही इन महिलाओं की रूहें कांप जाती थी। लेकिन Supreem court के पांच सदस्यीय पीठ ने 22 अगस्त 2017 के फैसले से मुस्लिम महिलाओं की जिन्दगी में राहत भरी रोशनी लेकर आयी है। इस फैसले ने महिलाओं को सामाजिक समानता के अधिकार की ओर बढने वाला कदम माना जा रहा है। जोकि संविधान में लिंग व धर्म के आधार पर सभी के साथ भेदभाव न किये जाने की बात की गई है। मुस्लिम महिलाओं में इससे काफी आत्मविश्वास जगा और अपने हकों की लडाई को आगे ले जाने का बल मिला। आफरीन, तस्नीम, नेहा खान, समीना जैसी लाखों पीडित महिलाओं में न्याय की आस जगी है। इतना ही नहीं मुस्लिम महिलाओं में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आत्मविश्वास व सुरक्षा की भावना जगी है। जानकारों का मानना है कि ये निर्णय सामाजिक बदलाव की एक बयार है जोकि आगे चल कर तूफान बनने में देर नही लगेगी। आल इण्डिया मुस्लिम महिला पर्सनल लाॅ बोर्ड का अध्यक्ष शाइस्ता अम्बर का कहना है कि इस फैसले हमारा आत्मविश्वास बढा है। तीन तलाक को रोकना है तो इसके कडा कानून बनाया जाना चाहिये,जिससे सजा के डर से कोई इस तरह का कदम न उठा सके। इस्लाम तरक्की पसंद मजहब है,इसमें रूढिवादिता व कट्टरपन की कोई जगह नही है। एक महिला काजी कहना है कि महिलाओं के जीवन में लटकने वाली तलाक रूपी तलवार से राहत मिली है। अब असुरक्षा की भावना से राहत मिलेगी। वहीं पीडित महिलाओं का कहना है कि हमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले से खुशी मिली। लेकिन हम जैसी पीडितों की जिन्दगी मौत से बद्तर जिन्दगी हो गई है,हमें न्याय मिलना अभी बाकी है। क्योंकि इस फैसले में तीन तलाक से पीडित महिलाओं के लिए कुछ भी नही है। हम जरूर समानता के अधिकार की तरफ बढे हैं लेकिन हमारी समस्या का कोई हल नही दिख रहा है। क्या मेरी जिन्दगी ऐसी ही रहेगी। ये पीडित महिलायें दूसरी लाखों महिलाओं को हक तो दिला दिया है लेकिन अपने हक का अभी भी इंतजार है! हलाला और बहु-विवाह जैसी कुरीतियों से ग्रस्त इस्लामिक मजहब के कट्टरपंथी लोग अपने मजहब में बदलाव को लेकर खिलाफ हैं। तीन तलाक, हलाला व बहुविवाह को लेकर शिक्षित महिलायें इसके खिलाफ कोर्ट का सहारा ले रही हैं, वही Muslim parsonal law board सहित अनेक मौलाना- मौलबी इसके खिलाफत में शरीयत का हवाला जोर अजमाइश में लगे हुए हैं। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की थ्वनदकमत जाकिया सोमन का कहना है कि तीन तलाक पर आये Supreem court के निर्णय से मुस्लिम महिलाओं का लोकतंत्र पर विश्वास और बढ गया है। इससे उम्मीद की जा रही है कि श्रमदकमत रनेजपबम पर भी सफलता मिलेगी , ये कुरान का उसूल भी है। उन्होंने कहा कि मुस्लिम महिलाओं ने काफी संर्घष झेला, प्रताडना सही, लेकिन हिम्मत से लडाई लडी और सफलता मिली। हमारे यहां कुरान के हिसाब से परिवारिक कानून बने।जिससे हमें समानता का हक मिल सके। ये तो सिर्फ पहला कदम है, आगे हलाला व बहुप्रथा की कुरीतियों से छुटकारा पाना है। इसके लिए हमें अशिक्षित पिछडी महिलाओं को एकजुट करना होगा। इस आंदोलन से जुडी मुस्लिम महिलायें व पीडित याचिकाकत्र्ताओं का आत्मविश्वास जरूर बढा है, लेकिन आगे की राह भी इतनी आसान नहीं है। क्योंकि अगर आंकडों पर नजर डाला जाय तो देश की आबादी का 14.88 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है, यानी कि 18 करोड। जिसमें आधी आबादी महिलाओं की है, कहने को सच्चर रिपोर्ट के अनुसार साक्षरता दर लगभग 54 प्रतिशत है। लेकिन हकीकत में 60 फीसद महिलायें शिक्षा से वंचित हैं। सात से 16 वर्ष की आयु तक पहुंचते तक लडकियों की स्कूल जाने की दर 3.11 फीसदी हो जाती है जोकि गांवों में 2.26 फीसद रह जाती है। इन आंकडों से ही पता चलता है कि महिलाओं की स्थिति क्या होती है। इसमें सबसे बडा रोडा बाल विवाह होता है। जिसमें मुस्लिम लडकियों की शादी 20 वर्ष से पूर्ब की करीब 70 फीसद लडकियों की शादी कर दी जाती है, जिसमें बहुतायत संख्या 12 से 16 वर्ष की लडियां होती हैं। मद्रास बवनतज ने माना कि कम उम्र में विवाह भी तलाक का एक प्रमुख कारण होता है। वही बहुप्रथा की बात किया जाय तो तलाक का एक कारण ये भी होता है कि रंगीन मिजाज पुरूष महिलाओं को भोग का साधन मात्र मानते हैं। और जब भोग से मन भरता है तब पत्नी को तलाक देकर दूसरी शादी रचाने में देर नही लगाते हैं। वहीं हलाला जैसी कुप्रथा जिसमें मुस्लिम महिलाओं को पर पुरूष के साथ हम विस्तर होना उनकी मान मर्यादा व भावना को तार तार करने के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ! ऐसे कुरीतियों के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं का आंदोलन एक पायदान पार कर चुका है, अपने समानता के अधिकारों की लडाई को बढाने की हिम्मत उनमें आ चुकी है। लेकिन उनकी जीत तभी होगी, जब वो अपने समाज की महिलाओं को शिक्षित करने का भी कार्य करें। पहले भी हिन्दू धर्म में छुआछूत,भेद भाव, सती प्रथा, विधवा विवाह, बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं में रोक लगी, तो मुस्लिम धर्म में क्यों नहीं ये बडा सवाल है ! भारत देश एक लोकतंात्रिक देश है,सभी को अपनी बात रखने का संबैधानिक दायरे में रखने का पूरा अधिकार है वे चाहे मुस्लिम महिलायें हों या फिर कोई अन्य। लोकतांत्रिक देश में जाति,धर्म व क्षेत्र सभी से ऊपर हमारा संविधान है।
@NEERAJ SINGH
@NEERAJ SINGH
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें